संस्कृति क्या है ? निबंध का सारांश | Sanskriti Kya Hai Summary Dr. Vasudev Sharan Agarwal

संस्कृति क्या है ? निबंध का सारांश | Sanskriti Kya Hai Summary Dr. Vasudev Sharan Agarwal

 संस्कृति क्या है ? निबंध का सारांश | Sanskriti Kya Hai Dr. Vasudev Sharan Agarwal


Sanskriti Kya Hai Summary Dr. Vasudev Sharan Agarwal


                                                                                                            डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल

 

'संस्कृति क्या है' पाठ के लेखक डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक और अगाध संपन्न व्यक्ति हैं। प्रस्तुत निबंध में आपने 'संस्कृति क्या है?' इस विषय पर अपने विचार प्रकट किये हैं तथा भारतीय संस्कृति का स्वरूप अंकित किया है। आपके अनुसार भारतीय संस्कृति का एक लंबा इतिहास है। गत पाँच वर्षों से भारतीय संस्कृति ने विभिन्न क्षेत्रों में विकास किया है। जीवन के विस्तार के अनुसार ही संस्कृति की बहुमुखी सामग्री होती है। धर्म, दर्शन, साहित्य, कला, समाज और उसकी परिवर्तनशील अनेक संस्थाएँ इन सब की संज्ञा संस्कृति है।

संस्कृति को अपने विकास के लिए युगानुरूपी काल के साथ-साथ कार्यस्थल अर्थात् देश भी चाहिए। भारत देश की सीमा कालांतरों में परिवर्तित होती रही है। भारत की भौगोलिक सीमा का आरंभ किसी समय पामीर के पठार से माना जाता था। दक्षिण पूर्व और पश्चिम भारतीय भूगोल के अंग थे। आदि कवि वाल्मीकि ने भारतीय भूगोल का चित्र खींचा था-

“समुद्र इव गाभीयें, धैर्यषा हिमवाबिन"

भारत भूमि को प्राचीन शब्दों में 'सर्व भूमि' या 'महापृथ्वी' कहा गया है।

संस्कृत शब्द का सबसे पहला प्रयोग यजुर्वेद में इस प्रकार आया है "सा प्रथम संस्कृत विश्वधारा" यजु 1714। वेद के इस मंत्रानुसार इस विश्व का नियामक तथा अधिपति कोई चैतन्य देवतत्व है। वह अपनी शक्ति से जिस विश्व या नित्य विधान की रचना करता है, वह सोम है। उसकी पूर्ति यज्ञ द्वारा होती है। सोम की इस प्रकार उत्तम रक्षा ही विश्व द्वारा वरण करने योग्य प्रथम संस्कृति है। संस्कार युक्त जीवन ही संस्कृति का अर्थ है। मन, कर्म और वचन से संस्कार उत्पन्न किये जाते हैं। प्रकृति भी संस्कार निर्माण में प्रभावी है। साथ ही मानव-प्रयत्न से भी संस्कार उत्पन्न होते हैं । मनुष्य के निजी आध्यात्म जीवन की उसके समाज को उसके संपर्क में जाने वाले भौतिक पदार्थों को संस्कार सुन्दर  और सुखमय, सशक्त और विश्व के नियमों के अनुकूल बनाते हैं जिन्हें धर्म कहते हैं। धर्म के पालन से मनुष्य को सुख मिलता है।

संस्कृति के प्रयोग हैं-धर्म और जीवन । संस्कृति के निर्माण में मानव द्वारा कर्म, मन और वचन से किया गया कार्य महत्त्वपूर्ण होता है। उसके द्वारा किया गया सभी कार्य तथा किये जा रहे कार्य को उसकी संस्कृति कह सकते हैं।

कर्म, मन और वचन ये मनुष्य के तीन गुण हैं। मानव मन का निर्माण ही उसके विचार हैं। धर्म, दर्शन, साहित्य आध्यात्म यह मन की सृष्टि है। ये सभी मानव-मन के महत्त्वपूर्ण अंग है। दूसरी तरफ व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए जो प्रयत्न किये हैं, जैसे धर्मयुक्त राज्य की स्थापना अथवा सामाजिक और धार्मिक आंदोलन ये सभी कर्ममयी संस्कृति के रूप हैं। संस्कृति का तीसरा क्षेत्र मानव की स्थूल या भौतिक रचनाएँ हैं। जिन्हें कला भी कहते हैं। इस प्रकार धर्म, दर्शन, साहित्य साधना, निर्माणपरक प्रयत्न का आंदोलन, राष्ट्र और समाज की व्यवस्था वैयक्तिक जीवन के नियम और निष्ठातत्व, कला, शिल्प, स्थापत्य, संगीत आदि की समष्टि का नाम ही संस्कृति है। मानव की कृति उसकी संस्कृति है। उसकी कृति गुण संपन्न अथवा दोष युक्त है। गुण-दोष मिलकर जीवन का ढाँचा बनता है । दोषों को त्याग कर गुणों को ग्रहण करना ही सच्ची संस्कृति है। गुणों को ही आदर्श कहा जाता है। आदर्श ही धर्म है। धर्म विश्व का सर्वोपरी नियम है।"जो नियम जीवन को धारण करते हैं अर्थात् जो व्यक्ति और समाज के जीवन की टेक है उन्हें धर्म कहते हैं। धर्म का उद्देश्य और कसौटी प्रजा के जीवन की रक्षा करना है। जिस तत्व में धारण या रक्षा करने की यह शक्ति है, उसे ही धर्म कहा जायेगा।" धर्म की यही सुबोध व्याख्या है।

सच्ची संस्कृति भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों को एक सूत्र में गूँथती है, उसमें पूर्व और नूतन का मेल है। कुछ लोग बीते युग के भक्त बने रहते हैं। इस स्थिति में मानव की नयी कर्मशक्ति कुण्ठित हो जाती है। भूतकाल जीवन को शक्ति नहीं दे सकता।.नवीनता ही जीवन है। जो बीत गया वह जड़ है- मृत है । भविष्य ही उसमें नये प्राण दे सकता है। कालिदास ने कहा है-

"पुराणमि त्येव न साधु सर्वम्।"

यही भारतीय संस्कृति के अध्ययन का सही दृष्टिकोण है। अतीत के गुणों को लेकर नवीन उत्साह से वर्तमान जीवन भविष्य के विकास के लिए किया जाना चाहिए।