भारतीय साहित्य की एकता का सारांश | Bhartiya Sahitya Ki Ekta Nibandh Summary
नन्ददुलारे वाजपेयी
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी आधुनिक युगीन समीक्षा संसार में प्रथम श्रेणी में प्रतिष्ठित हैं
जिन्होंने प्रस्तुत निबंध ' भारतीय साहित्य की एकता' ( Bhartiya Sahitya Ki Ekta Nibandh ) में भारत के विभिन्न भाषा-साहित्यों में भाषा-लिपि आदि के
बाह्य भेद होते हुए भी उनमें अभेदता का दर्शन और प्रतिपादन किया है।
हिन्दी, बंगला, असमीया, गुजराती आदि भारतीय भाषाओं के साहित्य में प्रांतीय एवं
पनपदीय संस्कृति की अपनी-छाप लगी हैं और प्रत्येक की अपनी-अपनी विशेषताएँ भी
भिन्न-भिन्न हैं, तथापि उनमें एक मूलभूत एकता सन्निहित है।
किसी भाषा के साहित्य में जो विशेषता आज है,
वह अन्य भाषा के साहित्य में पूर्वतः विद्यमान मिलती है,
जिससे स्पष्ट होता है कि इन भाषा-साहित्यों में परस्पर
आदान-प्रदान चलता रहा है और चल रहा है। उदाहरणार्थ बंगाल में रवीन्द्रनाथ का काव्य,
बंकिमचन्द्र के उपन्यास अथवा द्विजेन्द्रलाल राय के नाटक
बीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही प्रचलित हो चुके थे, परंतु हिन्दी में उन्हीं भावनाओं और शैलियों की रचनाओं का
प्रणयन कुछ काल पश्चात् प्रारंभ हुआ। यह आदान-प्रदान भी भारतीय भाषा-साहित्यों की
एकता का उद्घाटन करता है।
भारत ही क्यों क्या विश्व भर के साहित्यों की एक इकाई नहीं
है,
जिनमें परस्पर आदान-प्रदान होता है ?
इस प्रश्न का उत्तर है कि विश्व-साहित्य की एक इकाई वैसी
नहीं है जैसे कि भारतीय साहित्य की, क्योंकि समग्र भारतीय साहित्य में जो दार्शनिक एवं
सांस्कृतिक आदर्श संदर्शित है, वे अन्य देशों के भाषा-साहित्य में दृष्टिगत नहीं होते है।
फलतः भारतीय साहित्यकार अन्यदेशीय किसी भी भाषा-साहित्य को उस निस्संकोच स्वाभाविक
रीति से ग्रहण नहीं कर सकते, जिससे कि स्वदेशीय भाषा-साहित्यों से कर लेते हैं।
हमारी साहित्यिक परंपरा समृद्ध है। हम उसे छोड़कर अन्य
देशीय परंपरा का अंधानुकरण करके अपना या अपने साहित्य का उपकार नहीं कर सकते। नवीन
दिखाई देने वाली प्रत्येक परंपरा आवश्यक नहीं कि शाश्वत महत्व धारिणी हो ही,
वह 'चार दिन की चाँदनी' भी हो सकती है और उस पर विमोहित हो जाना हमारे लिए बुद्धिमानी नहीं होगी।
नव्यता-सदैव प्रगति-रूपिर्ण ही नहीं होते है, प्रायः वह हमें भ्रांत पथ पर भी खींच ले जाती है।
लाख चाहने पर भी हम अन्य देशों की प्रगति को नहीं पा सकते
है,
क्योंकि प्रत्येक देश अपना विकास एक विशेष परंपरा के अनुसार
करता है। अन्यदेशीय प्रगति का अनुधावन स्वाभाविक विकास की दिशा छोड़ करके क्रांति
खतरे से खाली नहीं होती।
विघटन-मूलक शक्तियों के प्राबल्य से आज संसार के भविष्य की
स्थिति डाँवाडोल है। संसार आज समझ रहा है कि भारतीय साहित्य और भारतीय दर्शन उसे
नया मार्ग-निर्देश दे सकता है। अन्य देश हमारे साहित्य और दर्शन का अमृत पान करने
को लालायित हैं तो क्यों न हम इसी की छत्रछाया में चलें और इसी को संतुष्ट करें?
वाल्मीकि, व्यास और कालिदास भारत में जन्में कहाँ,
इससे उनके महत्त्व और प्रचलन में कोई अंतर नहीं पड़ता,
क्योंकि वे समस्त भारत के थे और उसका साहित्य-सर्जन समस्त
भारत के लिए हुआ।स्पष्टतया इन्होंने जो साहित्य हमें दिया,
वह भारतीय साहित्य है, अखिल भारतीय साहित्य है। उसमें मूलभूत एकता विद्यमान है।
वैदिक साहित्य द्वारा संपूर्ण देश में धार्मिक भावना,
यज्ञ-पद्धति और संस्कार-विधियाँ एक-सी प्रचलित प्रतिष्ठित
हुई हैं। राम अयोध्या में उत्पन्न हुए थे, पर उनके चरित्र में भारतीय मानव का,
भारतीय भूपति का चरित्र रूपायित हुआ है। इसीलिए रामायण का
प्रचलन जितना उत्तर भारत में हुआ, उतना ही दक्षिण भारत में भी, समग्र देश में उनकी मान्यता एक-सी है। भारतीय साहित्य में
मूलभूत एकता न होती तो यह कैसे संभव होता?
कालिदास और भवभूति जो भारतीय वैभव-युग के प्रतिनिधि कवि हैं,
उनका विरचित साहित्य भी प्रादेशीय सीमा का अतिक्रमण करके
भारतीय साहित्य के रूप में समक्ष आया है। उसमें भी मूलभूत एकता दृष्टिगोचर होती
है। जैसे ग्रीक-रोमन सभ्यता के चरमोत्कर्ष के पश्चात् कर्जिला कवि ने 'इनिग्राड' नामक महाकाव्य की रचना की थी, वैसे ही भारतीय सभ्यता के चरमोत्कर्ष के पश्चात् माघ और
भारवि ने शिशुपाल-वधम्' और किरातार्जुनीयम्' सदृश महान कृतियों की रचना की थी। परम प्रांजल परिष्कृत भाषा का सुंदर रूप इनमें
दृष्टिगत होता है। एक-एक श्लोक के पाँच-पाँच, सात-सात तक अर्थ निकालना भी संस्कृत भाषा को विलक्षण
सामर्थ्य का द्योतक है। भट्टिकाव्य की मान्यता साहित्य ग्रंथ के रूप में भी जो
लेखक भाषा और अभिव्यक्ति पर लेखक के अनुपम अधिकार का द्योतक है।
महाकाव्य के इस प्रणयन-काल के पश्चात् जयदेव ने 'गीत-गोविन्द सृजन करके मधुर प्रगति शैली का मनोरम प्रचलन
किया,
जिसका अनुसरण करते हुए बंगाल में चंडीदास,
मिथिला में विद्यापति, उत्तर भारत में कबीर, तुलसी, सूर, महाराष्ट्र में ज्ञानदेव, गुजरात में नरसी मेहता और राजस्थान में मीराबाई ने गेय पदों
की परंपरा की उत्तरोत्तर वृद्धि की। दक्षिण भाषाओं में आलवार संतों ने भक्ति
काव्य-कृतियाँ प्रस्तुत कीं। तुलनात्मक दृष्टि से इन सभी कृतियों का साहित्यिक
मूल्यांकन भले ही न्यूनाधिक किया जाय, पर इन सभी में मूलतः एक-सी धार्मिक प्रेरणा विद्यमान है।
किन राष्ट्रीय और सामाजिक परिस्थितियों में इन कवियों ने साहित्य-सृजन किया,
इससे हमें विशेष प्रयोजन नहीं। प्रयोजनीय बात यह स्पष्ट है
कि चौदहवीं शताब्दी तक पूरे भारत में एक ही साहित्यिक ध्वनि गूँज रही थी,
जिसका मूलाधार था एक लोकोत्तर शक्ति में बलवती आस्था।
उन्नति और आरोह की स्थिति में ही नहीं, क्षीणता और अवरोह के काल में भी भारतीय साहित्य में एकता सन्निहित रही। हिन्दी की रीतिकालीन में शृंगारमयी नायिका वर्णन प्रधान रचनाएँ देश के विभिन्न प्रदेशों के राजदरबारों में लिखि गयी, जिनकी लोकप्रियता देश-व्याप्त रही। चित्रकला और संगीत के क्षेत्रों में भी भारतीय ऐक्य स्थापित रहा। उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय संगीत में एकता के तत्व सुस्पष्ट है। हिन्दी के कवि भूषण ने महाराष्ट्र की जन्मी शिवा जी सदृश वीर विभूति के यशोगान में कोई संकोच नहीं किया। गुजराती, महाराष्ट्रीय और कविगण भगवान कृष्ण का लीला गान करके आत्मतोष पाते रहे। ये बातें उद्घोष करती हैं भारतीय साहित्य की एकता ( Bhartiya Sahitya Ki Ekta Nibandh ) का । प्रादेशिक भिन्नता की भावना देश की प्रकृति की सहज गति कभी नहीं रही।
अंग्रजी के संपर्क का जो प्रभाव पड़ा,
वह भी देश भर से आश्चर्यजनक रूप से एक-सा था। कुछ समय
विदेशी सभ्यता की जगमगाहट, फिर एक नया मोड़ या पुनरुत्थान, फिर राष्ट्रीयता का अभ्युदय और स्वच्छंद प्रवृतियों का
प्रादुर्भाव प्राय: देश भर में एक-सा रहा। विभिन्न प्रांतों में आविभूर्त
साहित्यिक प्रतिभाओं का स्तर-भेद, प्रादेशिक अथवा जनपदीय संस्कृति की छाप तथा भिन्न-भिन्न
प्रांतों में भिन्न-भिन्न काव्य-रूपों का प्रधान्य होते हुए भी भारतीय वांड्मय की
मूल विकास-धारा और भावभूमि में कोई अंतर नहीं पड़ा।
भारत का साहित्य देश को विभाजित करने की ओर कदापि उन्मुख न
रहा,
सदैव संयोजन और संगठन की दिशा में बढ़ता रहा है। अत: यह
शंका निर्मूल है कि राष्ट्रभाषा होने पर हिन्दी अन्य प्रांतीय भाषाओं को क्षति
पहुँचायेगी। साहित्य के वैविध्य में भी सन्निहित एकता भारतीय संस्कृति में सदैव
विशेषता रही है।
भारतीय साहित्य की एकता, ( Bhartiya Sahitya Ki Ekta Nibandh ), जो हमें अद्यावधि प्रस्थापित मिलती है, वह भविष्य में भी बनी रहेगी। वह शाश्वत है। विदेशी प्रभावों की प्रबलता से जब-जब भारत की भाषा और साहित्य में संयोजक शक्ति का हास हुआ, तब-तब उसने दुर्दिन देखे । भारतीय साहित्य की आदर्श एकता समग्र देश को एक राष्ट्रीय इकाई के रूप में बनाए रखने में सदा सहायक और प्रेरणादायक रही है, रहनी चाहिए और रहेगी।