मित्रता निबंध - रामचन्द्र शुक्ल : MITRATA by Ramchandra Shukla
आचार्य शुक्ल ने इस निबन्ध में इस बात को प्रचारित किया है कि मित्र किस प्रकार
का होना चाहिये। मित्र का चुनाव किस तत्परता और सावधानी के साथ करना चाहिये। क्या
केवल साधन सम्पन्न लोगों को हो मित्र बनाना चाहिये। इन्हीं प्रश्नों के संदर्भ में
उन्होंने सच्चे मित्र और झूठे मित्र को परिभाषित किया है।
मित्र वही है जो सदैव सुख-दुःख में समान रूप से शामिल रहता है। युवावस्था
में मित्र बनाने की बड़ी उत्कृष्ट अभिलाषा रहती है। युवा वर्ग के लोग सभी को मित्र
बनाने में संकोच नहीं करते। उनमें एक ललक होती है, जिसका परिणाम
उन्हें भविष्य में भोगना पड़ता है। किसी से संगी साथी हो जाये, वास्तव में
क्या वह मित्र है, यह एक
विवादास्पद प्रश्न है । जो संकल्पों को दृढ़ करने में सहायक होता है। वही सच्चा
मित्र है । जिससे संकल्प शक्ति क्षीण होती है, वह मित्र नहीं है ।
समान प्रकृति के लोगों में ही प्राय: मित्रता होती है। परन्तु कुछ इसके अपवाद
भी हैं। जैसे लक्ष्मण उग्र स्वभाव के थे, पर शांतिप्रिय राम में उनका प्रगाढ़ प्रेम था। इसी प्रकार
दुराचारी दुर्योधन और सदीसयी कर्ण में ।
जो अच्छे कार्य
में मित्र का मन बढ़ाता है और उसको उसकी सफलता तक पहुँचाता है, वही सच्चा
मित्र है।
संसार में अनेक महापुरुषों ने मित्र की बदौलत बड़े-बड़े काम किये हैं। ऐसे
भी मित्र होते हैं जो टूटे दिल को जोड़ते हैं और लड़खड़ाते पाँव को सहारा देते
हैं।
बैकन कहता है कि समूह का नाम संगति नहीं है, जहाँ प्रेम
नहीं है वहाँ मित्रता
नहीं है। उस मनुष्य का जीवन चित्रवत है । चित्रवत जीवन निर्जीव होता है। इससे न तो
अपना कल्याण होता है और न तो दूसरों का। ऐसे मित्रों से कोई लाभ नहीं है।
जो बात मित्रों के लिये लागू है, वही बात जान-पहचान के लिये भी लागू | जो व्यक्ति
स्वसंस्कार में लगा हो,
उस आदमी को दूसरे के चरित्र का भी ध्यान रखना चाहिये। अगर वह ध्यान नहीं देता
तो वह सही मायने में उसका
साथ करने का अधिकारी नहीं है ।
यदि
कोई मित्र विनोद को बात नहीं कर सकता,
हमारे संकल्पों को आगे नहीं बढ़ा सकता,
न हमारे दुख और आनन्द में शामिल हो सकता, ऐसे मित्र से हमें सदैव दूर रहना
चाहिये। जो मित्र केवल सुख में शामिल रहते हैं और दुःख में किनारा कस लेते हैं
उनसे भी दूर रहना चाहिये।
जो
न मित्र दुख होहिं दुखारी,
तिनहिं
विलोकत पातक भारी।
जो
मित्र के दुःख में दुखी नहीं होता उसे देखने से भी पाप लगता है। मित्र वही है
जो अपने दुख को तृज्ञावत समझता है और मित्र के दु:ख को पहाड़ के समान समझता है।
बहुत
से लोग ऐसे होते हैं जो शोहदे होते हैं और बड़ों की नकल करते हैं, ऐसे शोहदों से
भी दूर रहना चाहिये। इंग्लैण्ड के एक विद्वान को राजदरबारियों में स्थान नहीं
मिला। इससे उसे दुःख नहीं हुआ। उसने सोच लिया कि वह कुसंगति से बच गया।
कुछ
लोगों का एक क्षण का संग साथ भी उचित नहीं है। वह उसी क्षण में अपनी बुद्धि का
परिचय दे देते हैं और हृदय को घृणा से भर देते हैं।
फूहड़
बातों से सदैव दूर रहना चाहिये। यह मत समझिये कि बकने वाला आदमी सुधर
जायेगा। या उस फूहड़ बात का किसी पर प्रभाव नहीं पड़ता है। उसी ही क्षण के फूहड़
बात का प्रभाव जीवन पर स्थायी पड़ता है।
मनुष्य
के संग साथ का पता उसके बातचीत से भी चल जाता है।
सठ
सुधरहिं सत संगत पाई।
पारस परस कुघात सुहाई॥
संत
संग से और सत संग से बुरे लोग भी सुधर जाते हैं, ठीक उसी प्रकार से,
कुसंगति में पड़कर अच्छे मनुष्य भी बिगड़ जाते हैं।
कुसंगति
का प्रभाव काजल के कोठरी के समान है। इसमें जो भी घुसता है या प्रवेश करता है, उसी प्रकार
कालिमा चढ़ जाती है। जिस प्रकार सफेद कागज पर कितना निशान।
काजल
की कोठरी में, कैसेहूँ
सयानो जाय।
एक लीक काजर की लागिहै पर लागिहै ॥
लेखक
का कटाक्ष युवा वर्ग पर नहीं है । यह सबके लिये है। बिना संग साथ के मनुष्य का
जीवन घबराता है। बिना संग साथ के मनुष्य का जीवन निरर्थक है।
मित्र
न मिलने पर कुछ लोग किसी का साथ कर लेते हैं। यह उनके अभावात्मक स्थिति और मित्र
भाव का द्योतक है। मित्र समाज में प्रवेश करने और कराने में भी सहायक होते हैं।
समाज ही ऐसा स्थान है जहाँ मनुष्य को अपना वास्तविक मूल्य ज्ञात होता है।
पृथक-पृथक
मनुष्य के गुण भी अलग-अलग होते हैं। केवल पुस्तक पढ़ने से भी काम नहीं चलता।
स्वास्थ्य एक उत्तम गुण है,
पर स्वास्थ्य ही सब कुछ नहीं है।
वस्तुत:
देखा जाय तो मानव जीवन एक परेड है। इस परेड में हम आज्ञा पालन और पढ़ाई करना सीखते
हैं। अनुशासन में रहना भी सीखते हैं।
हम
अनेक बातें, जैसे
झूठ बोलना भी समाज से ही सीखते हैं।
बड़ों
के प्रति सम्मान समकक्ष लोगों के साथ समान और छोटों के प्रति स्नेहित व्यवहार
सज्जनों के लक्षण हैं। दुष्टों,
चोरों और कुख्यात व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए। उन्हें मित्र नहीं बनाना
चाहिये।
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