Kavitawali Lachman-Murchha aur ram ka vilap | कवितावली (लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप) | NCERT Solution for class 12 hindi
लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप (ख )
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे । महा महा जोधा संघारे ।।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।।
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा।।
दोहा
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।।
शब्दार्थ- कथा-कहानी। तेहिं-उस। जेहि-जिस । हरि-हरण किया। आनी-लाए। कपिन्ह-हनुमान आदि। महा महा-- बड़े-बड़े। जोधा-योद्धा। संघारे-संहार किया। दुर्मुख-कड़वा बोलने वाला। सुररिपु-देवताओं का शत्रु। मनुज अहारी- मनुष्यों को खाने वाला। भट-योद्धा। अतिकाय-भारी शरीर वाला। अपर-दूसरा। महोदर-बड़े पेट वाला। आदिक- आदि। समर-युद्ध। महि-धरती। रनधीरा-रणधीर। दसकंधर-रावण। बिलखान-दुखी होकर रोना। जगदंबा-जगत जननी माँ। हरि-प्रभु। आनि-लाकर। सठ-मूर्ख। कल्यान-कल्याण, शुभ।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक 'आरोह भाग 2' में संकलित लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप' प्रसंग से उद्धृत है। यह प्रसंग रामचरितमानस के लंका कांड से लिया गया है। इसके रचयिता कवि तुलसीदास हैं। इस प्रसंग में कुंभकरण व रावण की मुलाकात का वर्णन है।
व्याख्या-अभिमानी रावण ने जब अपने भाई कुंभकरण को माता सीता का हरण से ले कर और युद्ध भूमि की सारी ब्रितांत सुनाई। उसके बाद रावण ने बताया कि हे तात! हनुमान ने हमारी सब वीर राक्षस दुर्मुख, देवशत्रु, नरांतक, महायोद्धा, अतिकाय, अकंपन और महोदर आदि को मार डाले हैं । उसने महान-महान राक्षस योद्धाओं का संहार कर दिया है। हमारी सभी वीर योद्धा युद्धभूमि में मरे पड़े हैं।भ्राता रावण की बातें सुन- कुंभकरण बिलखते स्वर में कहने लगा “अरे मूर्ख, तूने जगत जननी माता सीता को चुराकर अब तू अपनी कल्याण की बात सोचता है? यह बिलकुल संभव नहीं है”।
(2) दोहा
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ
तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार ।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि
पवनकुमार ।।
शब्दार्थ-तव-तुम्हारा, आपका। प्रताप-यश। उर-हृदय। राखि-रखकर। जैहऊँ-जाऊँगा। नाथ-स्वामी। तुरंत-शीघ्र। अस-इस तरह। आयसु-आज्ञा । पाइ-पाकर। पद-चरण, पैर।
बंदि-वंदना। बाहु-भुजा। सील-सद्व्यवहार। गुन गुण। प्रीति-प्रेम। अपार-अधिक। महुँ-में। सराहत-बड़ाई कर रहे हैं। पुनि-पुनि-फिर-फिर। पवनकुमार-हनुमान।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक 'आरोह भाग 2'
में संकलित 'लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप'
प्रसंग से उद्धृत है। यह प्रसंग रामचरितमानस के लंका कांड से लिया गया
है। इसके रचयिता कवि तुलसीदास हैं। इस प्रसंग में लक्ष्मण के मूर्छित होने तथा हनुमान
द्वारा संजीवनी बूटी लाने में भरत से मुलाकात का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-हनुमान जी राम जी को अस्वाशन
देते हुए कहते हें ,हे स्वामी ! हे भगवन !! मैं आपका यश अपने हृदय में रखकर
अति शीघ्र वहाँ समय पर पहुँच जाऊँगा और प्रुभु
की आदेश पाकर हनुमान भरत जी के चरणों को
नमन करते हुए वे वहा से निकल परे। भरत के बलसाली
भुजाओ, उदार भावना तथा
अपने प्रभु राम की पद के में उनकी अधिक
प्रेम को अंतर मन में बारम्बर प्रसंशा करते हुए पवनकुमार संजीवनी जड़ीबूटी लिए लंका की तरफ उड़े जा रहे थे।
(3)
उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी।।
अर्धराति गई कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायऊ।।
सकहु न दुखिल देखि मोहि
काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।
मम हित लागि तजेहु पितु माता । सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौ जनतेउँ बन बंधु बिछोहू । पितु बचन मनतेउँ नहि ओह् ।।
शब्दार्थ-उहाँ-वहाँ। लछिमनहि-लक्ष्मण को। निहारी-देखा। मनुज-मनुष्य। अनुसारी-समान। अर्ध-आधी। राति-रात। कपि-बंदर, हनुमान । आयउ-आया। अनुज-छोटा भाई, लक्ष्मण । उर-हृदय । सकहु-सके। दुखित-दुखी। मोहि-मुझे। काऊ-किसी प्रकार । तव-तेरा। मृदुल-कोमल। सुभाऊ-स्वभाव। मम-मेरे। हित-भला। तजेहु-त्यागते हो। सहेहु-सहन किया। विपिन-जंगल। हिम-बर्फ। आतप-धूप। बाता-हवा, तूफान। सो-वह।
अनुराग-प्रेम। वच-वचन। बिकलाई-व्याकुल। जौं-यदि। जनतेउँ-जानता। बिछोहू-बिछड़ना, वियोग । मनतेउँ-मानता। ओहू-उस।
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग 2' में संकलित 'लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप प्रसंग से उद्धृत है। यह प्रसंग रामचरितमानस के लंका
कांड से लिया गया है। इसके रचयिता कवि तुलसीदास हैं। इस प्रसंग में लक्ष्मण मूर्छा
पर राम के करुण विलाप का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-प्रिय भाई लक्ष्मण को ताकते हुए प्रभु श्रीराम एक आम मनुष्य के भाती कराहते हुए कहने लगे कि रात्रि के समय भी आधा बित गई पर अब तक पवन कुमार नहीं लौटे। लक्ष्मण को ह्रदय से लगाकर बोले कि तुम मेरी मायूसी कभी सह नहीं पाते थे।तुम हरदम उदार और नाजुक स्वाभाव के रहे हो। माता-पिता को तुमने मेरे लिए ही छोरा और ये बन में जाड़ा, गरमी, तेज़ हवा-तुफान आदि को झेला। हे अनुज ! इस वक़्त वह स्नेह कहाँ है? तुम होश में क्यों नही आते मेरी यह घबराहट भरी बाते सुन कर। अगर मुझे मालूम होता कि इन जंगलो में तुम से बिछरना होगा, तो मैं पिताजी का यह आज्ञा को नहीं पालन करता और नाही इन उपवनो में आता।