हमारे वैज्ञानिक युग की समस्या निबंध का सारांश | Hamare Vaigyanik Yug ki Samasya Essay
महादेवी वर्मा
हमारे वैज्ञानिक युग की समस्या नामक निबंध हिन्दी की
प्रख्यात कवियत्री एवं चिंतक व गद्य लेखिका स्वर्गीय महादेवी वर्मा द्वारा लिखा
गया है। प्रस्तुत निबंध में बढ़ते हुए भौतिकवाद से उत्पन्न विश्व व्यापी मानवीय
समस्याओं का विश्लेषण विवेचन करते हुए लेखिका ने लिखा है कि आज आवागमन एवं संचार
साधनों में हुई अभूतपूर्व प्रगति के कारण भौगोलिक एवं खगोलिक दूरियाँ कम हो गई है।
आज जड़-वस्तुएँ परस्पर काफी निकट ले आई गई है लेकिन यह समीपता केवल बाहरी है,
भौतिक है, भीतर नहीं। लेखिका रहस्यपूर्ण भाषा में कहती है कि
शिला-शिला के समीप होकर उसे विखण्डित कर सकती है। वृक्ष-वृक्ष को छाया दे सकते हैं
लेकिन इसे पारस्परिक आदान-प्रदान नहीं कहा जा सकता अपितु इसे जडात्मक विकास का एक
बिन्दु ही माना जा सकता है।
लेखिका कहती है कि वास्तविक सहचर भाव तो वहीं होता है जहाँ
मनुष्य बौद्धिक स्तर पर, भावना के स्तर पर, अनुभव और अनुभूति के स्तर पर परस्पर बँटता है और बाँटता है। जहाँ वह स्वेच्छा
से यत्नपूर्वक लेता-देता है। जहाँ वह क्षुद्र वैयक्तिक स्वार्थभाव से ऊपर उठ कर
समष्टि का अनुभव करता है। आधुनिक युग की यांत्रिकी दूरियाँ कम कर सकती हैं-परिवेश
को अधिक निकट ला सकती है पर जब तक विश्वजनीन लोकभाव और अनुभवों को परस्पर
प्रेमपूर्वक बाँटने का भाव पैदा नहीं होगा तब तक संपूर्ण वैज्ञानिक प्रगति व्यर्थ
है। उदाहरण देते हुए वह कहती है कि युद्ध क्षेत्र में सैनिक भी परस्पर काफी निकट
होते हैं और महायात्रा में पथ पर लगी भीड़ के पथिक भी परस्पर एक दूसरे के काफी
निकट होते है पर दोनों की स्थिति में आमूलचल भेद होता है। एक स्थिति में लोग
पररक्षा हित प्राण भी दे सकते हैं पर अन्य स्थिति में प्राण रक्षा के समस्त साधन
जान-बूझकर नष्ट किये जाते हैं। सर पर उड़ता बादल का टुकड़ा और बमवर्षक यदि दोनों
निकटता की दृष्टि से एक है पर दोनों की संभावित मूल्यवत्ता में भारी फर्क है ।
वस्तुत: जिस निकटता में मन की शंका बनी रहे प्राण संकट का संदेह बना रहे वह निकटता
वैज्ञानिक होते हुए भी अत्यंत त्रासद और समस्यापूर्ण होती है। यही कारण है कि आज
भौतिक स्तर पर दूरियाँ कम हो गई है पर मन का डर बढ़ गया है और वैज्ञानिक जलन,
द्वेष, संदेह, अविश्वास और संघर्ष बढ़ गया है और वैज्ञानिक प्रगति के
बावजूद यही आज के मनुष्य की भयावह समस्या बन गई है।
महादेवी भारत की प्राचीन गौरवमयी संस्कृति का अवगाहन करते
हुए कहती हैं कि भारत ने अपनी विविधता के बीच जीवन के तात्विक सूत्रों को तथा
एकत्व के कारक तत्वों को पहचान लिया था और कालांतर में वही सर्वात्मभाव भारत सारे
विश्व में फैलाता चला रहा। व्यष्टि और समष्टि का जैसा सामजस्य आरंभ से ही भारत में
मिला वह अन्यत्र संभव नहीं हो सका। फलस्वरूप सारा देश एक अविच्छिन्न सांस्कृतिक
एकसूत्रता में बँध गया। हमारे ऋषि-मुनि तथा लोकनायक बराबर इस ऐक्य भाव की रक्षा
करते रहे। तीर्थ पुष्कर, भाषा साहित्य धर्म-कर्म हर स्तर पर सांस्कृतिक एकता को पहचानने और बनाये रखने
का प्रयास किया जाता रहा है, इतिहास में लंबे-चौड़े उतार-चढ़ाव आये। शासन बदले,
संघर्ष भी खूब हुआ। शोषण भी सहा गया पर देश की सांस्कृतिक
एकता अविच्छिन्न बनी रही सत्य की शोध में जिसने भी मत मतांतर,
जितने भा साधन, जितने भी मार्ग तत्वान्वेषियों द्वारा खोजे गये देश के
जनमानस ने उन सबको स्वीकार किया। सबका स्वागत किया। सब में व्याप्त एक ही विश्व
विभु को पाने की कोशिश की लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि पुरातन से ही चिपके रहा जाए।
जिस तरह समुद्र को भी नए जल की जरूरत होती है उसी प्रकार देश की सांस्कृतिक एकता
को नित्य प्रगतिशील बनाये रखने के लिए नवीन खोजों, नवीन उपलब्धियों की आवश्यकता से हम भी आँखें नहीं मूँद
सकते।
लेखिका स्वतंत्रता के बाद के भारत को एक राजनैतिक इकाई
मानती है और उसे सांस्कृतिक इकाई का पर्याय होने से देश को सावधान करती है,
राजनैतिक व सांस्कृतिक इकाई में वह भेद मानती है। राजनैतिक
इकाई बाहरी व्यवस्था से जुड़ती है। इसका आधार भौतिक होता है जबकि सांस्कृतिक इकाई
आत्मबल और आत्मा की मुक्तवस्था से बनती है। यहाँ भेद में अभेद का ज्ञान अनिवार्य
है। बुद्धि और हृदय के स्तर पर विश्वात्मवाद के उच्च गुणों का आधान जरूरी हो जाता
है। लेखिका देश के क्रांतिकारी इतिहास का विश्लेषण करते हुए पिछली शताब्दी की
भौतिक एवं सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक क्रांति से उत्पन्न वरदान व अभिशाप का विश्लेषण करती है। वह
बताती है कि स्वतंत्रता पूर्व किये गये संघर्ष में स्वतंत्रता प्राप्ति हमारा
लक्ष्य था पर स्वतंत्र हो जाने के बाद जीवन में एक ठहराव आ गया। एक अजीब-सी
शिथिलता और जड़ता आ गयी। जिससे सांस्कृतिक मूल्यों का ह्यस होने लगा। अनेक प्रकार
की भौतिक एवं आर्थिक समस्याएँ उठ खड़ी हुई, वे अपने-अपने तरीके से अपने समाधान माँगने लगी। हुआ यह कि
साधनों ही साध्य मानकर लोग साधनों की अंधाधुंध हस्तगत करने की और दौड़ पड़े जिसका
परिणाम यह हुआ कि विद्वेष संघर्ष और असंतोष बढ़ने लगा। हमारा लौकिक व्यवहार दूषित
होने लगा। जो सभ्यता और संस्कृति को काफी दूर तक मानता है । दर्शन साहित्य आदि की
उपलब्धियाँ यद्यपि वैयक्तिक होती है। सांस्कृतिक स्तर पर वे सामाजिक हो जाती है।
जातीय हो जाती है। ऐसी स्थिति में जातीय व्यवहार और सामाजिक व्यवहार एक ऐसी
राष्ट्रीय शैली बन जाता है जो उच्चतर या निम्न जीवन व्यवस्था को जन्म देने एवं उसे
गति देने में कारक बनता है। लेखिका को इसी बात की शंका है कि जिस तेजी से राष्ट्र
की सामाजिक शैली में अवमूल्यन हो रहा है उससे देश की सांस्कृतिक अस्मिता ही खतरे
में पड़ गई है। देश का समाज प्राण शून्य होता जा रहा है। संस्कारगत रस से वंचित
होता जा रहा है। भविष्य में देश कहाँ जाकर रुकेगा, यह तो आने वाला इतिहास ही बतायेगा। हाँ,
इतना जरूर है कि लक्षण अच्छ नजर नहीं आते हैं। हमारे आचरण
में विषमता आ गई है। हम संस्कृति शून्य होते जा रहे हैं,
जो हमारी रुग्णता का वाचक है।
यद्यपि हमारा परिवेश काफी जटिल हो गया है। परिस्थितियाँ भी
अनुकूल नहीं है। पर सच्चाई यह भी है कि मन के स्तर पर अपना उत्साह खो चुके हैं।
हमारा मन बुझ गया है। हमारा मानसिक संतुलन बिखर रहा है जो नहीं होना चाहिए। हम
अपने सांस्कृतिक दर्शन से अलग हटते जा रहे हैं परिणाम स्वरूप हम थकावट-सी हमसूस
करते हैं। हम आस्था खो बैठे हैं । शंकाओं से घिर गये हैं। हम निष्क्रिय होते जा
रहे हैं। कर्मशीलता पर से हमारा विश्वास उठता जा रहा है। रोगी की तरह करवटें बदल
रहे हैं। दूसरों का मुँह ज्यादा ताकते हैं। अपने पर भरोसा कम करते हैं। लेखिका
बताती हैं कि इस तरह की स्थिति हर व्यक्ति के हर जीवन के,
हर समाज के, हर देश के जीवनकाल में आती है। कायाकल्प के संधिकाल में तो
ऐसा होता ही है पर हमें हौसला नहीं खोना चाहिए, विश्वास नहीं टूटना चाहिए, आस्था नहीं मरनी चाहिए। पुरातन और अधुनातन में संघट्टन तो
होती ही है। परंपराओं का नवीनीकरण तो होता ही है पर इसमें भी घबरा जाना या बह जाना
कोई बात तो नहीं हुई। वह हर हालत में सत्य, शिव और सुंदर के सनातन मूल्यों को बनाये रखने को समर्थन
करती है। संघर्ष और सृजन का पक्ष लेते हुए वह यही कहती हैं कि आत्मा की शक्ति और
पूर्व-पूर्व संस्कारों का बल प्रकाश की भाँति बराबर जिलाये रखना निहायत जरूरी है।
मशाल बुझाकर अंधकार में प्रकाश नहीं ढूंढा जा सकता।
लेखिका को विश्वास है कि घोर यांत्रिकीकरण के युग में भी मनुष्य की संवेदना
जीवन के महत् मूल्यों को पहचानेगी और साहित्य, कला, दर्शन व आस्थामूलक मानवीय क्रियाओं के द्वारा भौतिक जीवन को एक मूल्यवत्ता
प्रदान करेगी।
लेखिका को पूर्ण विश्वास है कि केवल भौतिक वैज्ञानिक स्तर पर ही
मनुष्य आदान-प्रदान नहीं करेगा अपितु भावना,
संवेदना, कला व संस्कृतिक स्तर पर भी वह आदान-प्रदान करेगा। इसके लिए
जरूरी है कि सारा देश एक हो, हम अपने देश के हर कोण से परिचित हों,
इससे जुड़ें और हम प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को नये के
साथ संपृक्त करते हुए प्राचीन को खोने न दें तथा नये का स्वागत करें तभी हम अपनी
भौतिक समस्याओं का सही सामाधान ढूँढ़ सकते हैं।