पूस की रात - मुंशी प्रेमचंद : Poos ki Raat Summary by Munshi Premchand

पूस की रात - मुंशी प्रेमचंद : Poos ki Raat Summary by Munshi Premchand

पूस की रात-मुंशी प्रेमचंद : Poos ki Raat Summary by Munshi Premchand


प्रेमचन्द ने कथा-साहित्य में अधिकांशत: ग्रामीण समाज का चित्रण किया है। उनकी प्रवृत्ति युगीन समस्याओं के यथातथ्य चित्रण की ओर रही है। मानव मन की अनुभूतियों और संवेदनाओं के सूक्ष्म चेता प्रेमचन्द जी ने पात्रों के मनोविश्लेषण में भी अपूर्व सफलता प्राप्त की है। 'पूस की रात' ग्रामीण जीवन से संबद्ध सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कहानी है। यह कहानी 'हिन्दी कहानी संग्रह' में संकलित है । कहानी का नायक आर्थिक विषमताओं का शिकार ग्रामीण किसान हल्कू है जो यथासामर्थ्य कृषि कर्म करने के उपरांत भी ऋण और दीनता से मुक्ति नहीं पाता है।

हल्कू दीन, असहाय और गरीब है। वह एक निम्न श्रेणी का कृषक है। प्रचंड सूर्य को झुलसने वाली किरणों, मूसलाधार वृष्टि के आघातों तथा हाड़ कंपा देने वाली सर्दी को सहन करते हुए प्रात:काल से सायंकाल तक अपने खेतों में काम करता है किंतु भरपेट भोजन उसे कभी प्राप्त नहीं होता है। ऋण- भार से दबा हुआ वह संतोष का आश्रय लेकर भाग्य से समझौता करता है।


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 सहना के ऋण से मुक्ति पाने के लिए वह कंबल नहीं खरीदता है। उसकी गाली, डॉट एवं घुड़कियों की उसे चिंता है। अपनी पत्नी से वे तीन रुपए माँगता है जो उसके लिए आने वाले जाड़े से बचने के लिए कंबल खरीदने के लिए रख छोड़े थे। सहना को रुपए देते समय उसे ऐसा लगता है मानो वह अपना हृदय निकाल कर दे रहा हो।

पुस की रातों में खेत की रक्षा अपेक्षित हो जाती है। वह ईख के पत्तों का एक छप्पर बनाता है और चादर ओढ़कर भयानक जाड़े का सामना करता है। उसकी खाट के नीचे उसका स्वामिभक्त कुत्ता'जबरा' ठंड से कुँ- कुँ करता है। हल्कू के हृदय में दया का स्त्रोत उमड़ता है। वह उसे गले लगा लेता है। यह भावना भुक्त भोगियों में पर्याप्त रूप में विकसित होती है। जाड़े के आघातों को सहन करने में अपने को असमर्थ पाकर हल्कू चिलम का अवलंबन ग्रहण करता है। वह भगवान की सृष्टि पर विचार करता है कि वह कितनी विचित्र है। यहाँ निरंतर परिश्रम करने वाले भूखों मरते हैं किंतु एक वर्ग ऐसा भी है जो इन्हीं के परिश्रम के फल का उपभोग करते हुए सुख एवं समृद्धि का जीवन व्यतीत करता है।

हल्कू अपनी शीत सहन की शक्ति में ज्यों-ज्यों वृद्धि लाता गया, त्यों-त्यों जाड़ा भयानक होता गया। क्षण मात्र के लिए वह दुर्गंध युक्त कुत्ते को अपनी गोद में लेकर उसकी गर्मी से सुख का अनुभव करता रहा। किंतु यह साधना भी व्यर्थ सिद्ध हुई। अंत में उसने पास के बगीचे की सुखी पत्तियों को संचित कर जलाया और उसके ताप से गर्मी प्राप्त करने लगा। गर्मी प्राप्त होते ही वह गहरी नींद में सो गया। खेत की रक्षा का उत्तरदायित्व विस्मृत हो गया। परिणामतः खेतों को नील गायें चर गयी। उन्होंने खेत उजाड़ डाला आर उसकी तपस्या को स्वाहा कर दिया।

वह प्रात:काल तक सोता रहा। जब उसकी पत्नी ने उसे जगाकर खेत की परिस्थिति का बोध कराया तो उसे तिलमात्र का भी दु:ख नहीं हुआ। उसे यह विचार कर संतोष मिला की पूस की रात में उसे खेत की रक्षार्थ अब नहीं आना पड़ेगा। वास्तव में दुःख जब सीमोल्लंघन करने लगता है, तब मनुष्य उसे जीवन का एक आवश्यक अंग मान लेता है। हल्कू का जीवन भी दुःछ झेलने में इतना अभ्यस्त हो गया है कि अब उसे इससे कोई शिकायत नही रह गयी है ।


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