निर्मला उपन्यास कथा सार
हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी लिखित 'निर्मला' एक चरित्र प्रधान उपन्यास है, जो भारतीय नारी-जीवन की एक दु:ख-दर्द पूर्ण करुण कहानी है । यह उपन्यास दहेज और अनमेल विवाह की सामाजिक समस्या पर आधारित है ।
उपन्यास की कथां अत्यंत सहज और स्वाभाविक ढंग से आरंभ होती है। बाबू उदयभानु लाल बनारस के अमीर और प्रतिभावान्-प्रतिष्ठित वकील थे । वे धन-संचय करना नहीं जानते थे, परन्तु परिवार के दरिद्र-प्राणियों को आश्रय देने को अपना परम कर्तव्य समझते थे। उनके परिवार में उनकी धर्मपत्नी कल्याणी, दो लड़कियाँ-निर्मला और कृष्णा तथा दो लड़के- चन्द्रभानु और सूर्यभानु थे। उदयभानु ने अपनी बड़ी पुत्री निर्मला की शादि लखनऊ निवासी बाबू भालचन्द्र सिन्हा के बड़े पुत्र भुवनमोहन के साथ निश्चित की। यहाँ उन्हें दहेज देने की चिंता नहीं थी, क्योंकि भालचन्द्र सिन्हा ने स्वयं कह दिया था कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, आपकी खुशी हो दहेज दें या न दें, किंतु बारातियों का आदर-सत्कार अच्छी तरह से होना चाहिये। अत: वकील साहब अपनी हैसियत के अनुसार बहुत अधिक खर्च करने को तैयार हो जाते हैं, परन्तु उनको व्यवहार-कुशल पत्नी कल्याणी उनकी इस बात का विरोध करती है। इस पर पति-पत्नी में झगड़ा हो जाता है और एक दिन मामला तंग होने पर, वकील साहब स्वांग रचकर, सुनसान रात्रि में घर छोड़ चल देते हैं। घर से निकलते ही थोड़ी दूर पर, उनका एक पुराना शत्रु मतई- जिसे डाके के अभियोग में उदयभानु लाल ने सरकारी वकील की हैसियत से तीन साल की सजा दिलायी थी-मिलता है। और अपना बैर चुकाने के लिये उन्हें मौत के घाट उतार देता है। इससे वकील साहब के परिवार फर संकट के बादल छाने लगते हैं।
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बाबू उदयभानु को आकस्मिक -असामयिक मृत्यु से समधी भालचन्द्र सिन्हा की गरीबी का आलम देखकर, मृत्यु को अमंगल-अपशकुन बताकर विवाह करने से मुकर जाते हैं। विवाह करने के लिये गये पंडित मोटेरामजी से यह समाचार सुनकर कल्याणी को अत्यन्त दु:ख होता है कि भालचन्ंद्र सिन्हा लड़की नहीं, दहेज चाहते हैं । अतः कल्याणी कृछ ताव में, कुछ लोभ में और कुछ बेबसी में निर्मला की सादी तीन लड़कों के पिता- विधुर दुहाजू मुंशी तोताराम के साथ कर द्रेती है।
मुंशी तोताराम पैंतीस वर्षीय वकील थे । वे अत्यधिक परिश्रमी थे अत: उनके सिर के बाल पक गये थे। उनको श्याम-स्थल देह में तोंद निकली हुई थी और वे मंदाग्नि तथा बकसिर के शियायती व्यक्ति थे । उनके परिवार में उनके तीन लड़के-मंसाराम, जियाराम और सियाराम थे, जिनकी आयु क्रमश: सोलह, बरह और सात साल की थी। इनके अतिरिक्त उनकी विधवा बहन रुविमिणी भी थी ।
शादी के पश्चात् निर्मला पति के घर आती है। दंपति- विज्ञान में कुशल पति, मितव्ययी होने पर भी अपनी पत्नी को खुश करने के लिये नित्य नये-नये उपहार लाते हैं, परन्तु निर्मला संकोचवश उन्हें प्रेम की नहीं, मम्मान की वस्तु समझती है। शायद इसलिये कि पति की अवस्था का ही एक आदमी उसका पिता भी था, जिससे वह देह चुराकर भाग जाया करती थी दूसरी और बूढ़े मुंशी तोताराम अपनी यौवन की देहरी पर कदम रखने वाली पत्नी निर्मला को प्रसन्न रखने के लिये नित्य नए-नए स्वाँग रचते हैं। अपनी वीरता के झूठे प्रसंग कह सुनाते हैं, परन्तु चपल निर्मला, अपने वृद्ध पति की काम-लालसा को भाँप जाती है, उसे अपने पति के पागलपन पर दया आने लगती है और वह उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास करती है।
ससुराल में गहने, कपड़े और धन-संपत्ति निर्मला को रूप वृद्धि और संतोष प्रदान करते हैं, परन्तु उसका मानसिक असंतोष बहुत बढ़ जाता है । उसका मन मर चुका होता है । पति से उसे पहले से ही असंतोष है, उसमें विधवा ननद रुक्मिणी उसे निरन्तर कोसती रहती है । वह नई बहू (भावज) पर अपना रोब जमाना चाहती है, तो निर्मला अपना मन अन्य बातों-कार्यों में लगा लेती है। वह बच्चों की सेवा-सुश्रुषा में लग जाती है । वह बड़े पुत्र मंसाराम से अंग्रेजी भी पढ़ती है, किंतु इसमें, काम-वासना में अंधे पति को शंका उत्पन्न होती है और वे वकिसी बहाने मंसाराम को छात्रालय में भेजने का निश्चय कर लेते हैं । तोताराम के बहुत अधिक तंग करने पर मंसाराम घर छोड़कर छात्रालय में रहने लगता है और मन ही मन निर्मला उसे रोकने की कोशिश करती है, परन्तु वह असफल होती है । रुक्मिणी भी निर्मला को ही अपराधिनी मानकर उसे नित्य ताने सुनाया करती है।
तोताराम के संशय को समझते ही, निर्मला पति के पक्ष में होकर उनका समर्थन करती है और पति की उपस्थिति में, मंसाराम के प्रति क्रूरता का अभिनय करती है। परन्तु किशोर हृदय मंसाराम इस अभिनय को सत्य समझ लेता है और अपने स्वमानी स्वभावं में हृदय पर मार्मिक का अनुभव पाता है। इसी कारण छात्रालय में वह चिंतनशील बन जाता है, दुर्बल होता जाता है और बीमार भी हो जाता है। स्कूल के हेडमास्टर के आदेश पर मुंशी तोताराम उसे लेने के लिये छात्रालय जाते हैं। परन्तु निर्मला के उसे घर लिवा लाने के अत्यधिक आग्रह और दबाव के कारण उनका संशय और भी दृढ़ हो जाने से, वे मंशाराम को घर न ले जाकर, सीधे ही अस्पताल पहुँचा देते हैं । वहाँ अनेक उपाय करने पर भी मंसाराम अच्छा नहीं होता। उसे विमाता- निर्मला के अभिनय की वास्तविकता का रहस्य विदित हो गया था । इधर निर्मला भी बीमार पुत्र को देखने के लिये तड़पती थी, परन्तु तोताराम के मना करने से वह अकेली अस्पताल जा नहीं सकती थी। परन्तु जियाराम से मंसाराम की अत्यन्त बुरी दशा के समाचार सुनत वह मिभाक होकर अस्पताल पहुँच जाती है । ठ्से देखते ही निर्बल मंसाराम उठ खड़ा होता है और अपनी विमाता के चरणों में गिरकर उससे क्षमा-याचना करता है और उसे निष्कलंक सिद्ध करता है । अब मुंशी तोताराम का वहम नष्ट होता है और उन्हें आत्मा-ग्लानि होती है । वे निर्मला के शुद्ध स्नेह का महत्त्व समझते हैं और उससे अन्याय के लिये क्षमा माँगते हैं। परन्तु अब तो बहुत विलंब हो चुका था । देखते ही देखते मंसाराम इस क्षण-भंगुर संसार से क्रूर अन्यायी समाज से हमेशा के लिये विदा ले लेता है ।
इस प्रकार पिता का भ्म दूर कर मंसाराम मर जाता है, परन्तु उसकी बीमारी से डॉ. सिन्हा तथा उनकी पत्नी सुधा से निर्मला का गाढ़ परिचय हो जाता है। डॉ सिन्हा वे ही महाशय हैं, जिनसे निर्मला की सगाई पक्की होकर फिर टूट गयो थो। निर्मला अपनी सखी को यह बात बताती है कि डॉ० सिन्हा ने दहेज के लोभ-मोह से हो उससे शादी के लिये इनकार किया था। उसकी करुण गाथा सुनने के बाद सुधा निरन्तर अपने पति को व्यंग्य-बाणों से कोसती रहती है।
निर्मला को अपनी छोटी बहन कृष्णा के विवाह की चिंता सताती है। इषर डॉ सिन्हा भी अपनी भूल का प्रायश्चित करते हैं । सुधा के द्वारा वे लिता कछ दहेज के कृष्णा का विवाह अपने छोटे भाई के साथ तय करते हैं। सधा गुप्त रूप से निर्मला को माता कल्याणों को पाँच सौ रुपये भेजकर ज उपकार करती है ।
इधर मुंशी तोताराम पुत्र-वियोग से उदास रहते हैं। अब वे कचहरी का काम भी ठीक तरह से नहीं कर पाते। परिणामतः आमदनी भी कम हो जाती है। उन्हें रुपये कर्ज लेने पड़ते हैं। जब वे कर्ज अदा नहीं कर पाते तो साहूकार उनका मकान नीलाम करवा लेता है। इसी बीच निर्मला एक पुत्री आशा को जन्म देती है, जिसमें तोताराम अपने खोये हुए पुत्र मंसाराम को पाते हैं। परन्तु क्या तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुँच सकता है ?
कृष्णा की शादी के अवसर पर निर्मला मैके जाती है। वहाँ उसे मालूम होता है कि डॉ. सिन्हा ही कृष्णा के ज्येष्ठ हैं, तो वह आश्चर्यचकित हो जाती है। अब सुधा से उसकी मित्रता और भी घनिष्ठ हो जाती है । बहत समय बीतने पर भी निर्मला मैके से ससुराल नहीं लौटती तो सुधा उसे लेने के लिये आती है। वहाँ उसका पुत्र सोहन ज्वर में फैस जाता है और असमय ही उसकी मृत्यु हो जाती है । तार देने पर डॉ. सिन्हा वहाँ पहुँच जाते हैं। वे सुधा को सांत्वना देते हैं और उसे तथा निर्मला को लेकर वापस लौट जाते हैं।
इधर मुंशी तोताराम की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है । उनका मंझला पुत्र जियाराम बुरी संगति में फँसकर उद्दण्ड हो जाता है। वह इतना उच्छृंखल और धृष्ट है कि अपने वृद्ध पिता को भी ताने सुनाता है । एक रात को वह निर्मला के कमरे में चुपचाप घुसकर, उसके गहनों का संदूक उठाकर भाग जाता है । निर्मला उसे देख भी लेती है परन्तु मुंशीजी को कुछ नहीं बताती । चोरी की बात सुनकर मुंशी तोताराम पुलिस में इत्तिला कर देते हैं। पुलिस ने जियाराम को ही चोर बताया। पर निर्मला घर की इज्जत मिट्टी में मिलाना नहीं चाहती थी। अत: उसने पुलिस को थोड़ी-बहुत रिश्वत देकर मामला शांत करने की कोशिश की- परन्तु जियाराम डर के मारे आत्महत्या कर लेता है।
जियाराम की आत्महत्या से तोताराम के दिल पर गहंरी चोट पहुँचती है। इतना ही नहीं, निर्मला भी बिल्कुल हदयहीन हो जाती है । पुत्र शोक में वकील साहब का किसी भी कामं में दिल नहीं लगता । अत: निर्मला पैसे बचाने के हेतु अबोध बालक सियाराम से बाजार से सौदा खरीद मँगवाती है । बार-बार के बाजार के चक्कर से तथा नित्य ही विमाता से ताड़ना पाकर सियाराम तंग आ जाता है। इतने में एक बार बनिये की दुकान पर एक साधु से उसकी भेंट हो जाती है। मातृविहीन सियाराम पर साधु की बात का गहरा असर पड़ता है। परिणामतः एक दिन वह भी घर छोड़कर साधु-महात्मा के साथ भाग जाता है । तलाश करने पर भी सियाराम नहीं मिलता तो वृद्ध पिता मुंशी तोताराम स्वयं पुत्र की खोज में निकल पड़ते हैं ।
इस प्रकार लगातार संकट-बाधाएँ उपस्थित होने पर निर्मला थक जाती है, हार जाती है और शांति-लाभ के लिये सुधा के घर जाती है। परन्तु दुर्भाग्य वहा भी उसका पीछा नहीं छोडता । सुधा की अनुपस्थिति में डॉ. सिन्हा निर्मला की ओर तीव्रता से, बुरी नीयत से आकृष्ट होते हैं और एकांत पाकर उससे छेड़छाड़ करते हैं, फरन्तु वह भाग जाती है । रास्ते में ही उसे सुधा मिल जाती है।वह कुछ संकेत कर देती है, जिससे सुधा सारी बात समझ जाती है।वह अपने पति की चारित्र्य-हीनता की भत्त्सना करती है-उन्हें भली-बुरी बातें सुनाती है। परिणामतः अपने दुष्कर्मो से लज्जित होकर, आत्मग्लानि में डॉ. सिन्हा विष खाकर आत्महत्या कर लेते हैं । उनकी मृत्यु के पश्चात् सुधा अपने देवर के साथ घर चली जाती है ।
दूसरी और अब भी संकट के बादल छाये रहने पर निर्मला व्याकुल- चिंतातुर रहती है और बीमार हो जाती है । अपने को अंत निकट देखकर छोटी बच्ची आशा -जो संपूर्ण विपत्कथा की वृहद् आालोचना है- को अपनी ननद रुक्मिणी के हाथों सौंपकर वह क्रूर समाज से सदैव के लिये विदा ले लेती है ।
मुहल्ले के लोग एकत्रित होते हैं । निर्मला की मृतदेह बाहर निकाली जाती है। श्मशान-यात्री चिंतामग्न हैं कि लाश को अग्नि-दाह कौन देगा ? इतने में एक बच्ची आशा- बुढ़ा पथिक मुंशी तोताराम उपस्थित हो जाता है ।
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