औरंगज़ेब की आखिरी रात-राम कुमार वर्मा : Aurangzeb ki Aakhiri Raat by Ramkumar Verma

औरंगज़ेब की आखिरी रात-राम कुमार वर्मा : Aurangzeb ki Aakhiri Raat by Ramkumar Verma

औरंगज़ेब की आखिरी रात-राम कुमार वर्मा : Aurangzeb ki Aakhri Raat by Ramkumar Verma

औरंगजेब मुगल इतिहास का आखिरी हीरा है जो अपने जीवन भर अपने बुरे कर्मो से ही चमकता रहा और जब मरा तो सारी जिन्दगी का क्लेष और निराशा, विकलता और व्यथा को लेकर गया! जिन्दगी के पूरे सत्ताईस साल उसने दक्खन में बिताये और अंतिम सॉँस भी वहीं पर ली। दक्षिण सर करने की, शिवाजी और मरहठों को नेस्तनाबूद करने की, इस्लाम का झण्डा पूरे हिन्दोस्ताँ पर फहराने की वासना पूरी किये बिना ही वह चल बसा ।

प्रस्तुत एकांकी में उसकी इसी विकलता का चित्रण किया गया है। वह इतना कट्टर धार्मिक था कि उसने बीजापुर-गोलकुण्डा जैसी मुस्लिम रियासतों को भी जीत लिया, परन्तु वह मराठों को नामशेष करने में सफल न हुआ।

एक ओर राज्य में दुर्व्यवस्था फैल गई है, दूसरी ओर वह वृद्ध हो गया है। पहले जैसी ताकत अब उसके शरीर में नहीं रही । आलमगीर बनने का उसका विजय स्वप्न अब निराशा में तिरोहित हो चला है। उसकी चिंताएँ उसे एक पल के लिए भी चैन नहीं लेने देतीं और अंत में हताश होकर वह अहमदनगर लौट आया है।

अशक्त इतना हो गया है कि दिल्ली भी जा सकने में समर्थ नहीं है । मजबूर होकर वह अहमदनगर के किले में बीमार पडा हुआ है । शरीर उसका टूट चुका है, ज्वर और खाँसी से वह ग्रस्त हो गया है, अवस्था उसकी 89 वर्ष की हो गयी है। उसके पास एक मात्र उसकी बेटी जीनत उन्नीसा बैठी हुई है। भय और आशंका से आक्रांत जीनत का चेहरा उदास हो गया है ।

औरंगजेब की खाँसी एक पल भर के लिए भी नहीं रुकती है, वह बड़ा परेशान है, वह अपनी बेटी जीनत से कहता है, यह खांसी की आवाज नहीं है, मौत की आवाज है, सल्तनत के उखडने सी आवाज है, उसे कोई नहीं रोक सकता ! जीनत उसे ढाढस देती हुई उसके दर्द को कम करने का प्रयत्न करती हैं, पर वह नाकामियाब रहती है।

औरंगजेब को एक एक करके अपने जीवन की वे सारी घटनाएँ याद आती हैं, जिसे करते वक्त उसने एक लमहे के लिए भी नहीं सोचा था, वे ही घटनाएँ आज उसका दुर्दैव बन रही हैं। कैसे उसने शंभाजी का वध किया था, मराठों की हिम्मत पस्त करने के लिए उसने क्या क्या किया था, इस्लाम का नाभ दुनिया में बुलन्द करने के लिए उसने कितनी कारवाइयाँ की थीं सब उसे याद आ रहा है। वह सारी जिन्दगी अपने दिल को तसल्ली देता रहा कि यह सब उसने इस्लाम के बास्ते, मजहब के नाम पर किया है लेकिन आज उसकी अन्तिम क्षणों में कोई आकर उससे कहता है कि 'तुने इस्लाम को धोखा दिया है। इस्लाम का नाम लेकर दुनिया को धोखा दिया है।'

और औरंगजेब की पीडा का, दर्द का सबसे बडा कारण यही है। उसे याद आता है सिक्खों का शौर्य और निछावरी आजार, शाहजहाँ को नजरबन्द करना, दारा, शुजा और मुराद के हक छीन लेना, यह सब उसने सल्तनत बचाने के लिये किया, इस्लाम के नाम पर किया, पर आज सब उसे अखर रहा है।

ताजमहल पर आँखें सटाये निराशा और व्यथा से मरते शाहजहाँ को वह नहीं भूल सकता । उसी ने शाहजहाँ के महल को कैद में तब्दील कराया था तबं शाहजहाँ ने कहा था- 'क्या आलमगीर 'ताज' को तो कैद नहीं करेगा न ? काश ! मैं अपने आँसू से ताज बनवा पाता !' शाहजहाँ मुहम्मद से सुने ये शब्द आलमगीर को आज गहरी पीडा दे रहे हैं। क्योंकि अपने वालिद का विश्वास वह कभी प्राप्त नहीं कर सका है। अपने अब्बाजान की चीखें आज उसके कानों में सुनाई दे रही हैं और वह अपने को वश में नहीं रख पाता ।

आजार अवस्था में वह होश भूल जाता है तब उसे अपने सामने घुटने टेककर गिडगिडाते शाहंशाह शाहजहाँ दिखाई देते हैं, जो कह रहे हैं 'आलमगीर हमें अपना बेटा औरंगजेब वापस कर तो बादशाही लिबास पहन कर हमारा बेटा बदल गया है !' अपने पिता को मृत्यु पर्यन्त कैद रखने का पक्षाताप आज उसे बुरी तरह पीडा दे रहा है।

उसे बचपन के दिन याद आते हैं। दारा का बचपन का शोर सुनते ही वह कान बन्द कर लेता है। फिर उसे धड़ से अलग किया गया, दारा का लहुलुहान मस्तक दिखाई देता है। अपने भाई के खून में रँगे अपने हाथों को वह मस्तक पर रखकर अपने किये हुए गुनाह से बचने का वह व्यर्थ प्रयत्न कर रहा है ।

वह हकीम से ऐसी दवा चाहता है, जो बेहोशी में गर्क कर दे और बर्दाश्त न होने वाले इन दृश्यों से छुटकारा पाये । पर जिन्दगी की इन आखिरी क्षणों में भी उसका शक्की स्वभाव नहीं जाता। वह जहर मिलाने के शक के कारण हकीम की दवा नहीं पीता। आज उसे पछतावा हो रहा है कि जीवन भर अविश्वास के कारण उसने किसी को भी अपना नहीं बनाया । खुद अपने शाहजहाँ को भी तख्त हथिया लेने के डर से कैद कर रखा हैं। पर आज मृत्युशय्या पर उसे अपने बेटें की बेहद याद सता रही है। वह कहता है-'मेरा एक भी बेटा आज मेरे पास नहीं है। उनका अपराध है कि ये औरंगजेब के बेटे हैं । जब मैं जन्मा था तब हजारों लोग मेरे इर्दगिर्द थे, पर आज मेरे आखिरी क्षणों में कोई भी मेरे पास नहीं है ।'

और उसे अपने अन्याय याद आते हैं। भाई मुरादबख्श ने राजा रामसिंह के भयंकर वार से उसे बचाया, पर बदले में मुराद को मौत मिली। 'जजिया' माफ करने की माँग करने आये हजारों हिन्दुओं पर हाथी चलाया ! आज वही हाथी उसके कलेजे को चूर-चूर कर रहा है। जीनत उसे दवा पीने की अर्ज करती है। वह कहता है-'दवा नहीं दुआ करो, मेरे लिए दुआ से बढ कर कोई दवा नहीं है।' वह अपने अन्तकाल को पहचान गया है। कातिब को बुला कर वह अपने बेटों को खत लिखवाता है, उसमें वह अपने जीवन भर के कुकर्मों का पछतावा ब्यान करता है और बेटों को सीधे राह चलने की हिदायतें तथा नसीहत देता है ।

अन्त में वह अपनी बेटी जीनत से कहता है कि उसकी देह को बिना कफन या ताबूत यों ही जमीन में दफन कर दिया जाय, जमीन पर बनी मिट्टी की कबर पर जब हरियाली छा जायेगी तो उसे खुशी प्राप्त होगी। अपने अपराधों की क्षमा चाहता हुआ आलमगीर, दारा, शुजा, मुराद के नाम लेते हुए अजान के अल्ला हो अक...' शब्द दुहराते हुए ही अव्वल मंजिल फर्मा जाता है।

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