ध्रुवस्वामिनी : कथासार
पूर्वाभास-'ध्रुवस्वामिनी' प्रसादजी की एक महत्वपूर्ण अंतिम नाट्यकृति है। इसका प्रकाशन सन् 1933 ई.
में हुआ था। इस नाटक में समुद्रगुप्त की मृत्यु एवं चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के समय के मध्यवर्ती काल का चित्रण किया गया है। यद्यपि इस काल का घटना-व्यापार इतिहास में प्रायः लुप्त सा है, किंतु प्रसादजी ने निजी अध्ययन एवं तर्कयुक्त कल्पनाओं के आधार पर इस काल की कथावस्तु का संयोजन अपने इस अंतिम नाटक में किया है। इस नाटक की कथावस्तु अधिक यथार्थ प्रभावशाली एवं स्वाभाविक है। इसमें यदि एक ओर शास्त्रीय रूढ़ियों के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर अन्य कथात्मक विशेषताएँ भी परिलक्षित होती हैं। ध्रुवस्वामिनी का कथानक इस प्रकार है
कथा-सार
गुप्त-काल के समुद्रगुप्त ने अपने दो पुत्रों रामगुप्त और चन्द्रगुप्त में से चंद्रगुप्त को ही साम्राज्य के भावी उत्तराधिकारी के रूप में चुना था। किंतु समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत चन्द्रगुप्त अपने भाई द्वारा फैलाये अनेक कुचक्रों में फँस गया। परिस्थितियों की प्रतिकूलता एवं अपनी उदारता के कारण चन्द्रगुप्त ने अपने समस्त अधिकार ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त को सौंप दिये। राज्याधिकार के इस षड्यंत्रकारी परिवर्तन के पीछे शिखरस्वामी का बहुत बड़ा हाथ था। विलासी रामगुप्त धन और शक्ति के लोभ के कारण राज दण्ड को प्राप्त कर लेता है,
किंतु वह राज्य प्रशासन में सर्वथा असमर्थ है। वह स्वयं विलासिनी स्त्रियों के साहचर्य में व्यस्त रहता है। मद्य के सरोवर में आकण्ठ डूबा रहकर वह राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों को भुला बैठता है। इसका अनुचित लाभ उठाकर शिखरस्वामी संपूर्ण राज्यसूत्र अपने वश में कर लेता है। उधर दूसरी और रामगुप्त की अति विलासिता के कारण उनकी पत्नी ध्रुव देवी पूर्णतः उपेक्षित रहती है। एकांत उसे इतना अधिक असह्य हो जाता है कि वह बात-बात में झल्ला उठती है। प्रथम अंक में ही जब रामगुप्त ध्रुव देवी के कक्ष में आकर पहली बार उससे बातचीत करता है तो ध्रुवस्वामिनी का उत्तर उसके हृदय की खोज का स्पष्ट प्रमाण है-'इस प्रथम संभाषण के लिए मैं कृतज्ञ हुई महाराज! किंतु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री-संप्रदाय से ही बड़ा हुआ है?' इतना ही नहीं, बेचारी ध्रुव देवी को कुबड़ों, बौनों और हिजड़ों के साथ रहना पड़ता है। अत: वह अपने वर्तमान पर दुःखी रहकर भविष्य के प्रति निरंतर चिंतित रहती है।
यों तो रामगुप्त के साथ ध्रुवस्वामिनी का विवाह धर्म और अग्नि की साक्षी में हुआ था, किंतु अपने तथाकथित पति रामगुप्त से उसे पति-सुख कभी प्राप्त न हो सका। वैसे भी रामगुप्त अपनी विलासी वृत्ति और क्रूरता के कारण ध्रुवस्वामिनी की घृणा का पात्र ही बन सका था।इन सबके अतिरिक्त वह नपुंसक और मूर्ख भी था। न उसे अपनी मर्यादा का विचार था और न कुल-गौरव की चिंता। इन सब कारणों से ध्रुवस्वामिनी मन ही मन अपनी मधुर भावना के आधार के रूप में अपनी पूर्व प्रेमी.चन्द्रगुप्त को ही चुनौती देती है और जब ध्रुवस्वामिनी को यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त भी उससे मौन प्रेम करता है, तब चन्द्रगुप्त के प्रति उसका आकर्षण और अधिक बढ़ जाता है। दुष्ट रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी के हृदय की इन भावनाओं को जान लेता है और उस पर कड़ा नियंत्रण रखने लगता है। यह मनोविज्ञान का सिद्धांत है कि बाधा पाकर प्रेम सदैव बढ़ता है और वैसे भी जब ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त की नपुंसकता और चन्द्रगुप्त की वीरता की तुलना करती है, तब चन्द्रगुप्त के प्रति उसका प्रेम चरम सीमा पर पहुँच जाता है। रामगुप्त राज्य प्रशासन में सर्वथा होने के कारण अपने पूर्ण अधिकार खो बैठता है। उसकी प्रशासन व्यवस्था में शिथिलता देखकर एक अन्य राजा शकराज उस पर आक्रमण कर देता है। रामगुप्त का दुर्ग शकराज के वीर सैनिकों द्वारा घेर लिया जाता है। जब रामगुप्त युद्ध को टालने के लिए शकराज से संधि की प्रार्थना करता है तो शकराज उसके बदले में ध्रुवस्वामिनी को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट करता है। वह अपने सामंतकुमारों के लिए भी स्त्रियाँ माँगता है। इस अशिष्ट शर्त को सुनकर भी रामगुप्त का निर्लज्ज मन तनिक भी विचलित नहीं होता और वह अपने महामंत्री शिखरस्वामी की सम्मति से रामगुप्त की यह माँग स्वीकार करने का निश्चय कर लेता है। रामगुप्त के इस चरम पतन को देखकर ध्रुवस्वामिनी का हृदय घृणा से भर जाता है। वह रामगुप्त के पाँव पड़कर प्रार्थना करती है कि वह उसे पर-पुरुष की अंक-शायिनी न बनने दे। किंतु रामगुप्त उसकी एक भी नहीं सुनता। ऐसे कठिन अवसर पर वीर चन्द्रगुप्त गुप्तकुल की मर्यादा की रक्षा के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होता है। परिस्थितियों की भयंकरता को देखते हुए वह निश्चय करता है कि स्त्री-वेश धारण-करके महादेवी ध्रुवस्वामिनी के रूप में शकराज के सामने स्वयं उपस्थित होकर वह इस बात का प्रयत्न करेगा कि सारा खेल ही उलट जाए। वह मन ही मन शकराज का वध करने का निश्चय कर लेता है। चन्द्रगुप्त के इस साहस को देखकर
ध्रुवस्वामिनी उस पर और भी अधिक
मुग्ध हो जाती है तथा उसके साथ शकराज के शिविर में चली जाती है। वहाँ चन्द्रगुप्त
की तीव्र बुद्धि, व्यवहार कुशलता एंवं वीरता की विजय होती है। बर्बर शकराज चन्द्रगुप्त के हाथों
मौत के घाट उतार दिया जाता है और उसकी आश्रयहीन सेना इधर-उधर भाग जाती है।
वीर चन्द्रगुप्त
अपने पराक्रम और बुद्धिबल द्वारा सभी सामंतकुमारों का हृदय जीत लेता है। वे जब
देखते हैं कि चन्द्रगुप्त में अपने स्वर्गीय पिता की भाँति राजा के सभी गुण
विद्यमान हैं और सम्राट समुद्रगुप्त उसे ही उत्तराधिकारी के रूप में चुना था,
तब वे एक स्वर से चन्द्रगुप्त को अपना सम्राट मान लेते हैं।
ध्रुवस्वामिनी सारी सभा के समक्ष अपने अकाट्य तर्कों द्वारा रामगुप्त के राक्षस
विवाह से मुक्ति प्राप्त कर लेती है।पुरोहित भी उसे चन्द्रगुप्त की पत्नी और महारानी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। स्थिति में यह आकस्मिक परिवर्तन देखकर शिखरस्वामी आरंभ में तो कुछ विरोध करता है, किंतु परिस्थिति की प्रतिकूलता देखकर चुप हो जाता है। रामगुप्त पूर्णतया निराश होकर चन्द्रगुप्त पर पीछे से प्रहार करके बदला लेने की चेष्टा करता है। उसके इस दुष्कर्म पर क्रोधित होकर सामंतकुमार तुरंत उसका (रामगुप्त का) वध कर देते हैं। इस प्रकार चन्द्रगुप्त अपनी सच्चरित्रता, वीरता, व्यवहार कुशलता, बुद्धि प्रखरता और सभ्यता के बल पर अपनी प्रेयसी ध्रुवस्वामिनी के साथ निष्कंटक और लोकप्रिय राज्य भोगता है।