संत कबीर दास की साखी 1 से 10 तक व्याख्या सहित : Kabir Das ki Sakhi
जीवन परिचय
भारत
के महान संत और आध्यात्मिक कवि कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 ईसवी
में हुआ था | इनके जन्म
के विषय में यह प्रचलित है कि इनका जन्म स्वामी रामानन्द के आशीर्वाद से एक विधवा
ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था जो लोक-लाज
के डर से इन्हें 'लहरतारा' नामक
तालाब के पास फेंक आई। संयोगवश नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति को ये मिले और
उन्होंने इनका पालन-पोषण
किया। कबीर
की शिक्षा-दीक्षा का अच्छा
प्रबंध न हो सका। ये अनपढ ही रहे। ये साधु संगति और ईश्वर के
भजन चिंतन में लगे रहते थे। इनका विवाह 'लोई' नामक
स्त्री से हुआ था। इनके 'कमाल' नामक एक पुत्र और 'कमाली' नामक
एक पुत्री थी।
धर्म
के प्रति
साधु संतों का
तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।' उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके
शिष्यों ने उसे लिख लिया। इनके समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे
एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं
मानते थे।
भाषा
कबीर की भाषा में अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है।
उनकी शैली उपदेशात्मक शैली है।
कृतियाँ
कबीदास की रचनाओं को उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र
तथा शिष्यों ने 'बीजक' के नाम से संग्रहीत
किया। इस बीजक के तीन भाग हैं—1. सबद 2. साखी 3. रमैनी। बाद में इनकी रचनाओं को 'कबीर ग्रंथावली' के नाम से संग्रहीत किया गया।
कबीर दास की मृत्यु
मृत्यु वर्ष 1518 ईसवी में हुआ था | 15 शताब्दी के सूफी कवि कबीर दास के बारे में ऐसा
माना जाता है कि उन्होंने अपने मरने की जगह खुद से चुनी थी, मगहर, जो लखनउ शहर से 240
किमी दूरी पर स्थित है।
लोगों के दिमाग से मिथक को हटाने के लिये उन्होंने ये जगह चुनी थी उन दिनों, ऐसा माना जाता था कि जिसकी भी मृत्यु मगहर में
होगी वो अगले जन्म में बंदर बनेगा और साथ ही उसे स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी। कबीर
दास की मृत्यु काशी के बजाय मगहर में केवल इस वजह से हुयी थी क्योंकि वो वहाँ जाकर
लोगों के अंधविश्वास और मिथक को तोड़ना चाहते थे।
कबीर की साखी
सतगुरु सवाँ
न को सगा, सोधी सईं न दाति ।
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हरिजी सवाँ
न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।१।।
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व्याख्या : सद्गुरु के समान कोई सगा
नहीं है। शुद्धि के समान कोई दान नहीं है। हरि के समान कोई हितकारी नहीं है, हरि सेवक के समान कोई जाति
नहीं है।
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बलिहारी
गुरु आपकी, घरी घरी सौ बार ।
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मानुष तैं
देवता किया, करत न लागी बार ।।२।।
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व्याख्या : मैं अपने गुरु पर प्रत्येक
क्षण सैकड़ों बार न्यौछावर जाता हूँ जिसने मुझको बिना विलम्ब के मनुष्य से देवता
कर दिया।
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सतगुरु की
महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
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लोचन अनँत
उघारिया, अनँत दिखावनहार ।।३।।
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व्याख्या : सद्गुरु की महिमा अनन्त
है। उसका उपकार भी अनन्त है। उसने मेरी अनन्त दृष्टि खोल दी जिससे मुझे उस अनन्त
प्रभु का दर्शन प्राप्त हो गया।
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राम नाम कै
पटंतरे, देबे कौं कुछ नाहिं ।
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क्या लै
गुरु संतोषिए, हौंस रही मन माँहि ।।४।।
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व्याख्या : गुरु ने मुझे राम नाम का
ऐसा दान दिया है कि मैं उसकी तुलना में कोई भी दक्षिणा देने में असमर्थ हूँ।
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सतगुरु कै
सदकै करूँ, दिल अपनीं का साँच ।
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कलिजुग हम
सौं लड़ि पड़ा, मुहकम मेरा बाँच ।।५।।
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व्याख्या : सद्गुरु के प्रति सच्चा
समर्पण करने के बाद कलियुग के विकार मुझे विचलित न कर सके और मैंने कलियुग पर
विजय प्राप्त कर ली।
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सतगुरु शब्द
कमान ले, बाहन लागे तीर ।
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एक जु बाहा
प्रीति सों, भीतर बिंधा शरीर ।।६।।
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व्याख्या : मेरे शरीर के अन्दर
(अन्तरात्मा में) सद्गुरु के प्रेमपूर्ण वचन बाण की भाँति प्रवेश कर चुके हैं
जिससे मुझे आत्म-ज्ञान प्राप्त हो गया है।
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सतगुरु
साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक ।
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लागत ही भैं
मिलि गया, पड्या कलेजै छेक ।।७।।
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व्याख्या : सद्गुरु सच्चे वीर हैं।
उन्होंने अपने शब्दबाण द्वारा मेरे हृदय पर गहरा प्रभाव डाला है।
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पीछैं लागा
जाइ था, लोक वेद के साथि।
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आगैं थैं
सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ।।८।।
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व्याख्या : मैं अज्ञान रूपी अन्धकार
में भटकता हुआ लोक और वेदों में सत्य खोज रहा था। मुझे भटकते देखकर मेरे सद्गुरु
ने मेरे हाथ में ज्ञानरूपी दीपक दे दिया जिससे मैं सहज ही सत्य को देखने में
समर्थ हो गया।
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दीपक दीया
तेल भरि, बाती दई अघट्ट ।
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पूरा किया
बिसाहना, बहुरि न आँवौं हट्ट ।।९।।
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व्याख्या : कबीर दास जी कहते हैं कि
अब मुझे पुन: इस जन्म-मरणरूपी संसार के बाजार में आने की आवश्यक्ता नहीं है
क्योंकि मुझे सद्गुरु से ज्ञान प्राप्त हो चुका है।
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ग्यान
प्रकासा गुरु मिला, सों जिनि बीसरिं जाइ ।
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जब गोविंद
कृपा करी, तब गुर मिलिया आई ।।१०।।
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व्याख्या : गुरु द्वारा प्रदत्त सच्चे
ज्ञान को मैं भुल न जाऊँ ऐसा प्रयास मुझे करना है क्योंकि ईश्वर की कृपा से ही
सच्चे गुरु मिलते हैं।
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